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एक महल का सपना, कड़वी धूप और बेबस आँखें: क्या आप बदलेंगे ये तस्वीर

On: August 1, 2025 4:20 AM
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एक महल का सपना, कड़वी धूप और बेबस आँखें: क्या आप बदलेंगे ये तस्वीर - देव कुमार मैं हूँ झारखण्ड पुस्तक के लेखक, देव कुमार
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एक महल का सपना, कड़वी धूप और बेबस आँखें: क्या आप बदलेंगे ये तस्वीर – देव कुमार मैं हूँ झारखण्ड पुस्तक के लेखक

सिविल सेवा में भविष्य तलाशने वाले लोगों को समर्पित यह आलेख मैं हूँ झारखण्ड पुस्तक के लेखक देव कुमार द्वारा लिखी गई है। शायद आपको शुरू में पढ़कर लगे कि कहीं सिविल सेवकों की आलोचना तो नहीं की जा रही है लेकिन जैसे- जैसे आप पूरा पढ़ेंगे पता चलेगा सिविल सेवा में भविष्य तलाशने एवं सदैव समाज सेवा के लिए तत्पर रहने के लिए प्रेरित करेगी यह आलेख!

यकीन मानिये अपने एक दशक के कार्यानुभव से बता रहा हूँ अगर आपको या जनप्रतिनिधियों या वरीय अधिकारियों को जाननी है कि आपके प्रखंड या जिले में कैसा विकास हो रहा है तो कार्यालय में जनता के लिए समर्पित शौचालय को देखिए अधिकांश प्रखंडों में या तो यह बंद मिलेंगे या तो उसके करीब जाते ही इतना बदबूदार होगा कि शायद उल्टी हो जाये। यह आईने की तरह बतायेगा कि अफसर बाबू का बेबस जनता के प्रति कैसा समर्पण?

चमकता प्रवेश द्वार और अनसुनी आहटें… सिविल सेवा भारतीय युवाओं के लिए महज़ एक करियर नहीं, बल्कि एक गहरा सपना है। यह सपना है समाज में मान-सम्मान पाने का, बदलाव लाने का, और देश सेवा करने का। हर साल लाखों युवा इसी सपने को आँखों में संजोए, दिन-रात एक कर देते हैं, कड़ी मेहनत करते हैं और बड़े-बड़े त्याग करते हैं। जब सफलता मिलती है, तो बधाइयों का तांता लग जाता है: ‘अब तो अफ़सर बन गए!’, ‘अब तो सब ठीक हो जाएगा!’, ‘अब तुम समाज के लिए कुछ कर पाओगे!’ – ऐसी बातें हर तरफ़ सुनाई देती हैं।

मगर, क्या यह ‘सफलता’ सिर्फ़ एक पदवी है? या इसके पीछे कुछ ऐसी सच्चाइयाँ भी छिपी हैं जिनकी गूँज बधाइयों के शोर में कहीं दब जाती है? यह कहानी हमें इसी सपने के महल के भीतर ले जाएगी, जहाँ से हम उस ‘कड़वी धूप’ को देखेंगे जो अक्सर लोगों की आँखों से ओझल रह जाती है—वह धूप जो प्रखंडों के उन लाचार लोगों के चेहरों पर पड़ती है, जो अपने सपनों के अधिकारी की एक झलक पाने को तरसते हैं।

*सपनों का महल* जहाँ से शुरू होती है जनसेवा की राह
सिविल सेवा का मोहक मायाजाल हर उस युवा के लिए, जिसने इसकी तैयारी की है, किसी भव्य महल से कम नहीं। इसकी चमक इतनी तीव्र होती है कि अक्सर इसकी दीवारों के पीछे छिपी दरारें दिखाई नहीं देतीं, लेकिन जनसेवा का जज़्बा इसे और भी रोशन कर देता है।

*प्रतिष्ठा और शक्ति का आकर्षण*

एक सिविल सेवक का पद भारतीय समाज में हमेशा से आदर और सम्मान का प्रतीक रहा है। कल्पना कीजिए—आप एक छोटे शहर में जाएँ और आपका नाम सुनते ही लोगों के चेहरे पर सम्मान का भाव आ जाए। गाड़ियों का क़ाफ़िला, सुरक्षाकर्मी, और जनता की नज़रों में एक ख़ास रुतबा—यह सब एक युवा को अपनी ओर खींचता है। यह सिर्फ़ एक नौकरी नहीं, बल्कि एक सामाजिक पहचान है। जब किसी गाँव का युवा सिविल सेवा में चयनित होता है, तो पूरा गाँव जश्न मनाता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका ‘अपना’ अब दिल्ली या राँची में बैठकर उनकी समस्याओं को सुलझाएगा। इस पद से मिलने वाली शक्ति और निर्णय लेने का अधिकार युवाओं को इस ओर आकर्षित करता है कि वे बड़े पैमाने पर सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।

*जनसेवा का पवित्र प्रण*


बहुत से उम्मीदवार वास्तव में समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं। उनके भीतर एक गहरा सेवा भाव होता है। वे गरीबी, अशिक्षा, और असमानता को क़रीब से देखते हैं और उसे दूर करने की अटूट इच्छा रखते हैं। कल्पना कीजिए, एक युवा इंजीनियर अपनी आरामदायक कॉर्पोरेट नौकरी छोड़कर दिन-रात इसलिए पढ़ता है, क्योंकि उसने अपने गाँव में पानी की कमी या स्कूल की दुर्दशा देखी है। वह सोचता है कि एक अधिकारी बनकर वह इन समस्याओं का स्थायी समाधान कर पाएगा। उसके लिए यह सिर्फ़ एक नौकरी नहीं, बल्कि एक मिशन है—समाज के सबसे वंचित तबके तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुँचाना, न्याय दिलाना और उनके जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाना। उनके सपनों में एक ऐसा तंत्र होता है, जहाँ भ्रष्टाचार नहीं, केवल निष्ठा और जनसेवा होती है।

*हीरो बनने की ख्वाहिश*


हम सबने फ़िल्मों में या ख़बरों में ऐसे अधिकारियों की कहानियाँ सुनी हैं, जिन्होंने अकेले दम पर व्यवस्था से लड़ाई लड़ी और जीते। ये कहानियाँ युवाओं को ‘हीरो’ बनने की प्रेरणा देती हैं। वे सोचते हैं कि वे भी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँगे, माफ़िया को नेस्तनाबूद करेंगे, और रातों-रात बड़े फ़ैसले लेकर जनता का उद्धार करेंगे। जैसे, कोई युवा ‘सिंघम’ या ‘दबंग’ फ़िल्म देखकर सोचता है कि वह भी एक ऐसा पुलिस अधिकारी बनेगा जो अपराधियों को घुटने टेकने पर मजबूर कर देगा, या कोई ‘नायक’ फ़िल्म देखकर सोचता है कि वह भी एक दिन का मुख्यमंत्री बनकर पूरे सिस्टम को सुधार देगा। यह ख्वाहिश उन्हें असीमित ऊर्जा देती है और उन्हें यह विश्वास दिलाती है कि वे अपने दम पर असंभव को भी संभव बना सकते हैं।

*तैयारी के दौरान का आदर्शवादी माहौल*

सिविल सेवा की तैयारी का दौर ख़ुद में एक बुलबुले जैसा होता है। दिल्ली, प्रयागराज, पटना, हजारीबाग या राँची के कोचिंग सेंटरों में, पुस्तकालयों में और किराए के कमरों में हर छात्र के मन में एक ही तस्वीर होती है—सफलता की, सम्मान की, और बदलाव लाने की। यहाँ की बातचीत में अक्सर समस्याओं से ज़्यादा समाधान पर ज़ोर होता है। शिक्षक और सफल उम्मीदवारों की प्रेरक कहानियाँ इस आदर्शवाद को और मज़बूत करती हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई प्रोफ़ेसर बताते हैं कि कैसे एक छोटे गाँव का लड़का आईएएस बनकर अपने ज़िले का नक़्शा बदल देता है तो छात्रों को लगता है कि एक बार चयन हो जाए, तो सब आसान हो जाएगा। इस माहौल में, बाहरी दुनिया की जटिलताएँ और ज़मीनी हकीकतें अक्सर धुँधली पड़ जाती हैं और सपने ‘यथार्थ’ से ज़्यादा महत्वपूर्ण लगने लगते हैं, यह सोचकर कि हर चुनौती को पार किया जा सकता है।

*कड़वी धूप*


जहाँ इंतज़ार करते हैं आपके हाथ
लेकिन सपनों के महल से बाहर निकलते ही, एक कठोर ‘कड़वी धूप’ उनका इंतज़ार करती है—वह धूप जो सीधे उन लाचार और बेबस लोगों पर पड़ती है, जो रोज़मर्रा की समस्याओं से जूझते हुए सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाते हैं। यह वो जगह है जहाँ आपके सपनों को हक़ीक़त में बदलने का असली मौक़ा मिलता है।

*प्रखंड कार्यालय की उदासीन चौखट*


एक नव-नियुक्त अधिकारी जब पहली बार किसी प्रखंड या अंचल कार्यालय में क़दम रखता है, तो उसे सपनों और हक़ीक़त के बीच का पहला गहरा झटका लगता है। यह वह स्थान है जहाँ सबसे अधिक जनता आती है, पर सबसे कम सुनवाई होती है। कल्पना कीजिए, एक पुराना, बदरंग सरकारी भवन जहाँ दीवारों पर पान के दाग़ हैं, कुर्सियाँ टूटी हैं, और हवा में एक अजीब सी उदासी घुली हुई है। फ़ाइलें अस्त-व्यस्त पड़ी हैं, और कर्मचारी अक्सर अपनी सीटों पर नदारद रहते हैं या फ़ोन पर व्यस्त। यह एक ऐसा माहौल है जहाँ आशा कम और निराशा अधिक दिखती है, और यह वो जगह है जहाँ आपके हस्तक्षेप की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

*दर-दर की ठोकरें खाते लाचार लोग: जिनकी आँखों में है एक उम्मीद*

यहीं पर आप उन लोगों से मिलते हैं जिनके लिए आपका ‘अफ़सर’ बनना जीवन की सबसे बड़ी उम्मीद है। क्या आप इस उम्मीद को टूटने देंगे?

*वृद्धावस्था पेंशन की बाट जोहता वृद्ध*


60- 65 वर्षीय वृद्ध अपनी पत्नी के साथ पिछले छह महीनों से प्रखंड कार्यालय के चक्कर लगा रहे हैं। उनकी पेंशन रुक गई है। कभी बैंक में आधार लिंक नहीं हुआ, कभी अधिकारी छुट्टी पर हैं, तो कभी बाबू ने कोई नया काग़ज़ माँग लिया। उनकी आँखों में थकान है, शरीर में दर्द, और मन में एक ही सवाल—”साहब, कब तक यूँ ही भटकना पड़ेगा?” क्या ऐसे लाचार को आपकी मदद नहीं मिलेगी?

*विधवा का संघर्ष*


एक महिला, जिनके पति एक दुर्घटना में गुज़र गए, अपनी विधवा पेंशन और बच्चे के स्कूल दाख़िले के लिए भटक रही हैं। काग़ज़ पूरे हैं, लेकिन हर बार कोई नया बहाना बन जाता है। उसे कहा जाता है, “अभी साहब नहीं हैं, कल आना।” वह हर बार उम्मीद लेकर आती है और खाली हाथ लौट जाती है। क्या आप उस विधवा के आँसू पोंछेंगे?

*भूमि विवाद में फँसा किसान*


किसान ने अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर क़ब्ज़ा होने की शिकायत अंचल कार्यालय में की है। एक साल हो गया, कई बार अर्ज़ी दी, रिश्वत के नाम पर पैसे भी दिए, लेकिन फ़ाइल आगे नहीं बढ़ी। हर बार कोई कहता है, “फ़ाइल गुम हो गई है”, या “अभी साहब की फुर्सत नहीं।” उसकी फ़सल बर्बाद हो रही है, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। क्या किसान को न्याय नहीं मिलेगा?

*सरकारी अस्पताल में तड़पती जान*

पास के गाँव से लाया गया एक ग़रीब मरीज़, जिसे बुख़ार है और शरीर में दर्द। सरकारी अस्पताल में डॉक्टर उपलब्ध नहीं, या दवाइयाँ नहीं हैं। उसे निजी अस्पताल जाने को कहा जाता है, जहाँ इलाज के लिए उसके पास फूटी कौड़ी नहीं है। उसकी पत्नी पास बैठकर रो रही है, क्योंकि उसे समझ नहीं आ रहा कि अब क्या करे। क्या उसकी जान बचाना आपका कर्तव्य नहीं?

ये वे लोग हैं जिनकी आँखों में सिर्फ़ बेबसी है, लेकिन उनके पास एक उम्मीद भी है—आपकी। वे सिस्टम से लड़ने की हिम्मत खो चुके हैं। उनके लिए हर सरकारी बाबू एक अड़चन है और हर नियम एक नया जाल। क्या आप इस जाल को तोड़ेंगे?

*व्यवस्था का संवेदनहीन चेहरा जहाँ आप बन सकते हैं एक रोशनी*

इन कार्यालयों में आप भ्रष्टाचार का एक ऐसा रूप देखते हैं जो खुलकर नहीं दिखता, पर हर जगह मौजूद है। छोटे से काम के लिए भी ‘चाय पानी’ या ‘मिठाई’ का नाम लेकर पैसे माँगे जाते हैं। एक नया अधिकारी देखता है कि कर्मचारी दोपहर के खाने के बाद घंटों ग़ायब रहते हैं। फ़ाइलों पर धूल जमती रहती है और अर्जियाँ कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं। जनता के प्रति एक अजीब सी उदासीनता और संवेदनहीनता दिखती है। उदाहरण के लिए, जब कोई अधिकारी देखता है कि एक बूढ़ी महिला को काग़ज़ की एक मुहर के लिए पूरे दिन इंतज़ार करवाया जा रहा है और फिर भी उसका काम नहीं हो रहा तो उसे एहसास होता है कि यहाँ ‘सेवा’ नहीं, बल्कि ‘शक्ति प्रदर्शन’ हावी है। यह वो तस्वीर है जिसे आपको बदलना है।

*सपनों और हकीकत का भीषण टकराव*

यह वह क्षण होता है जब युवा अधिकारी के सपनों का महल दरकने लगता है। उसने सोचा था कि वह ‘नायक’ बनेगा, लेकिन वह देखता है कि वह एक ऐसी मशीन का हिस्सा बन गया है जो अक्सर काम ही नहीं करती, या फिर ग़लत दिशा में काम करती है। जो उम्मीदें उसने ख़ुद से और व्यवस्था से लगाई थीं, वे टूटती दिखती हैं। वह सोचता है, “क्या यही वो व्यवस्था है जिसे बदलने का सपना मैंने देखा था? क्या मैं भी इन उदासीन अधिकारियों की भीड़ का हिस्सा बन जाऊँगा?” यह एहसास कि ‘अफ़सर बनकर नेक काम करेंगे’ कहना आसान है, लेकिन धरातल पर उसे अंजाम देना कितना मुश्किल है, उसे भीतर तक झकझोर देता है। वह देखता है कि ‘सिस्टम’ सिर्फ़ एक शब्द नहीं, बल्कि एक विशाल, जटिल और अक्सर निर्दयी जाल है जो हर नई सोच को निगलने को तैयार रहता है। लेकिन क्या आप इस जाल के सामने हार मान लेंगे?

एक युवा अधिकारी के मन में उठते प्रश्न: क्या ‘रुक जाना नहीं’ सिर्फ़ एक नारा है, या आपकी प्रतिज्ञा? इस कड़वी धूप में खड़े होकर, एक युवा अधिकारी के मन में अनगिनत प्रश्न उठते हैं। ये प्रश्न आपके लिए भी हैं।
मेरा उद्देश्य क्या था?
जो अधिकारी जनसेवा और बदलाव का सपना लेकर आया था, वह अब इस माहौल को देखकर ख़ुद से सवाल पूछता है: “क्या मेरा आने का मक़सद सिर्फ़ एक आरामदायक कुर्सी पाना था, या मैं वाक़ई कुछ बदल पाऊँगा?” उसे डर लगता है कि कहीं वह भी इस व्यवस्था का हिस्सा न बन जाए, जो लोगों की मदद करने के बजाय उन्हें और उलझाती है। यह डर स्वाभाविक है, पर क्या आप इसे अपनी राह का रोड़ा बनने देंगे?

*नैतिक दुविधाओं का चक्रव्यूह*

जब कोई असहाय व्यक्ति मदद के लिए आता है और उसे नियमों, प्रक्रियाओं या भ्रष्टाचार के नाम पर भटकाया जाता है, तो अधिकारी एक गहरी नैतिक दुविधा में फँस जाता है। क्या वह ‘नियम’ को माने, भले ही उससे अन्याय हो? या ‘मानवता’ को प्राथमिकता दे, भले ही नियमों का उल्लंघन हो? सहकर्मियों और वरिष्ठों का दबाव भी होता है जो कहते हैं, “देखो, यहाँ ऐसे ही काम होता है, ज़्यादा हीरो बनने की कोशिश मत करो।” इस चक्रव्यूह को तोड़ने की हिम्मत किसमें है?

बाहर से मिली बधाइयाँ अब खोखली लगने लगती हैं। असली सफलता क्या है—केवल पद प्राप्त करना, या उससे कुछ सार्थक करना? अधिकारी के मन में यह सवाल आता है कि क्या वह इस ‘सफलता की आँच’ को जीवन भर जला पाएगा, या यह केवल एक क्षणिक चमक बनकर रह जाएगी, जैसे एक मोमबत्ती जो कुछ देर जलकर बुझ जाती है? क्या ‘रुक जाना नहीं’ सिर्फ़ एक नारा है, या यह सचमुच संभव है जब चारों ओर निराशा और बाधाओं का अम्बार हो?

अब फ़ैसला आपका है। क्या आप सिर्फ़ सपनों का महल देखेंगे, या उस कड़वी धूप में खड़े होकर उन बेबस चेहरों को एक उम्मीद देंगे? क्या आप व्यवस्था के संवेदनहीन चेहरे को बदलकर, जनसेवा का एक नया अध्याय लिखेंगे? क्या आप ‘नायक’ बनने का सपना पूरा करेंगे, न कि सिर्फ़ एक अधिकारी बनकर रह जाएँगे? सोचिए, और अगर आपके भीतर जनसेवा की सच्ची लगन है, तो यह समय है आगे बढ़कर उस बदलाव का हिस्सा बनने का, जिसकी इस समाज को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

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Sindhu

अगर सही मार्ग पर चला जाए तो सफलता निश्चित है। अभ्यास सफलता की कुंजी मानी जाती है, और यह अभ्यास यदि सही दिशा में हो तो मंजिल मिलने में देर नहीं लगती। इस लिए कहा भी गया है:- " करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान। रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान।।"

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