कित्तूर की रानी चेन्नम्मा Rani Chennama की वीर गाथा, रोचक कहानी हिंदी में
भारत वीरांगनाओं की धरती रही है। उत्तर भारत में जिस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई की वीर गाथा प्रसिद्ध है। ठीक उसी प्रकार दक्षिण भारत में रानी चेन्नम्मा के साहस और शौर्य गाथा लोगों के चेहरे में है। रानी लक्ष्मीबाई से 30 वर्ष पहले 1820 के दशक में कित्तूर की रानी चेन्नम्मा ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंका था।
रानी चेन्नम्मा का बचपन
रानी चेन्नम्मा का जन्म झांसी की रानी के जन्म के 56 वर्ष पूर्व 23 अक्टूबर 1778 को कर्नाटक के बेलगाम में हुआ था। बचपन से ही चेन्नम्मा घुड़सवारी, तलवारबाजी, और तीरंदाजी में खासी रुचि रखती थी।
विवाह की रोचक कहानी
कर्नाटक प्रांत के छोटा कस्बा कित्तूर धारवाड़ और बेलगांव के बीच में बसा है। चेन्नम्मा घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी जैसे परंपरागत खेलों में पारंगत थी। जब चैन्नम्मा किशोरावस्था में थी उसी समय बेलगाम में एक नरभक्षी बाघ का आतंक छा गया। कित्तूर के राजा मल्लसर्ज ने बाघ को मारने के लिए बेलगाम में आखेट पर गये। उन्होंने बाघ पर बाण चलाया। बाण लगते ही वह वहीं गिर पड़ा। बाघ के गिरने के बाद राजा मल्लसर्ज बाघ को देखने बाघ के पास गये। लेकिन मल्लसर्ज बाघ में दो तीर लगे देख कर चौंक गये। उन्होंने तो एक ही बाण चलाया था पर ये दूसरा तीर किसका है। तभी उनकी नजर सैनिक वेशभूषा में सजी एक सुंदर कन्या पर पड़ी, राजा को समझते देर न लगी कि दूसरा बाण किसका है। राजा मल्लसर्ज रानी की वीरता सौंदर्यता पर मंत्रमुग्ध हो गए। इस घटना के बाद चेन्नम्मा की शादी कित्तूर राजा मल्लसर्ज से हुआ।
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रानी का संग्राम
चेन्नम्मा राजा मल्लसर्ज से शादी के बाद वे रानी चेन्नम्मा के रूप में जाने जानी लगी। रानी चेन्नम्मा राजा के राजकाज तथा सैन्य अभियानों में साथ देने लगी। शादी के कुछ ही दिनों बाद उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। रानी चेन्नम्मा के पति मल्लसर्ज तथा इकलौते पुत्र की असामयिक निधन हो गया। इसके बाद रानी चेन्नम्मा ने शिवलिंगप्पा को अपना उत्तराधिकारी चुना। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने रानी के इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया। अंग्रेजों की दृष्टि छोटे परंतु समृद्ध राज्य कित्तूर पर बहुत दिनों से था अवसर मिलते ही अंग्रेजों ने कित्तूर रानी चिन्नम्मा द्वारा गोद में लिया गया पुत्र शिवलिंगप्पा आपको उधारिकारी मानने से इनकार कर दिया। उसके बाद अंग्रेजों ने हड़प नीति (Doctrine of lapse) के तहत कित्तूर को हड़पने की योजना बनाने लगे।
ब्रिटिश शासन से युद्ध में रानी की विजय
अंग्रेजों ने पहले फूट डालो शासन करो की नीति से आधा राज्य दिलाने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को अपनी ओर मिला लिया। परंतु रानी ने स्पष्ट शब्दों में अंग्रेजों से कहा कि उत्तराधिकारी का हमारा आंतरिक मामला है। अंग्रेजों को इसमें कोई लेना- देना नहीं है। रानी चेन्नम्मा ने जनता को आश्वासन किया कि “जब तक रानी के शरीर में रक्त का एक भी बूंद है तब तक कित्तूर को कोई हड़प नहीं सकता।”
अंग्रेजों की सेना 23 सितंबर 1824 को कित्तूर को घेर लिया। लेकिन रानी चेन्नम्मा ने खुद सैनिकों के साथ मोर्चा संभाली और अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी। अंग्रेज सैनिक युद्ध छोड़कर भाग खड़ा हुए। दो देशद्रोहियों को रानी ने तलवार से मौत के घाट उतार दिया। पुनः 3 दिसंबर 1924 को कित्तूर किले को अंग्रेजों ने घेर लिया। लेकिन इस बार पुनः रानी चेन्नम्मा की सेना ने अंग्रेजों को पीछे हटने पर विवश कर दिया।
रानी की शहादत
रानी चेन्नम्मा और ब्रिटिश अधिकारियों के बीच हुए समझौते के तहत युद्ध कुछ दिनों के लिए टल जरूर गया। लेकिन अंग्रेज षड्यंत्र पर षड्यंत्र रच रहे थे। 1924 में ही अंतिम निर्णय युद्ध हुआ 12 दिनों तक रानी चेन्नम्मा और उसकी सेना ने अंग्रेजी फौज का सामना किया। देशद्रोहियों ने तोपों में गोला और बारूद की जगह गोबर और कीचर भर दिए थे। जिस कारण रानी की हार हुई। युद्ध के दौरान उन्हें बंदी बना कर बेलहोंगल(Bailhongal) के किले में कैद कर रखा गया। रानी बचे हुए दिन इसी किले में बंदी के रूप में कांटी। अंततः 21 फरवरी 1829 को रानी का इसी किले में देहांत हो गया।
रानी के सम्मान में

कित्तूर की रानी चेन्नम्मा अंग्रेजों के विरुद्ध भले ही युद्ध ना जीत सकी हो। परंतु आजादी के लिए संघर्ष तथा अपना सर्वस्व बलिदान के कारण वे इतिहास में अमर हो गयी। आज उत्तर भारत में जिस शिद्दत और सम्मान से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम लिया जाता है। उसी शान और आदर से दक्षिण भारत में रानी चेन्नम्मा को जाना जाता है। सितंबर 2007 में संसद भवन परिसर में रानी चेन्नम्मा की प्रतिमा स्थापित की गई है। यह रानी के सम्मान का एक प्रतीक। पुणे-बेंगलुरु राष्ट्रीय राजमार्ग पर बेलगाम में कित्तूर का किला आज भी देखा जा सकता है। जो रानी चेन्नम्मा की वीरता और बलिदान की कहानी बयां करता है। यहां हर वर्ष 22 से 24 अक्टूबर तक यहां कित्तूर उत्सव मनाया जाता है।
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Writer
Mahendra Prasad Dangi