रक्षाबंधन का इतिहास और महत्व | Raksha Bandhan ka itihas and important
रंग बिरंगी राखी लेकर आई बहना वो राखी बंधवा ले मेरे वीर, 1962 में बनी फिल्म अनपढ़ में लता मंगेशकर द्वारा गाया गया यह गीत भाई बहन की अटूट प्यार को इंगित करता है। रक्षाबंधन के अवसर पर बहन भाई की कलाई पर रक्षा का सूत्र बांधती है जिसे राखी के रूप में जाना जाता है। और भाई बहन को रक्षा का वचन देता है। यह हिंदुओं का पवित्र पर्व भी है। प्राचीन धर्म ग्रंथों तथा ऐतिहासिक ग्रंथों में इसके साक्ष्य मिलते हैं। हमारे समाज में रक्षाबंधन का बड़ा महत्व है।
इस लेख के अंदर
1. रक्षाबंधन कब मनाया जाता है
2. रक्षाबंधन का इतिहास
2.1 धार्मिक ग्रंथों में
2.2 ऐतिहासिक ग्रंथों में
3. रक्षाबंधन का महत्व
4. रक्षाबंधन से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
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1. रक्षाबंधन कब मनाया जाता है
भाई-बहनों का पवित्र पर्व “रक्षाबंधन” हर वर्ष हिंदू पंचांग के अनुसार ‘श्रावण मास‘ की “पूर्णिमा” को मनाया जाता है। जो अधिकतर अंग्रेजी पंचांग के अनुसार “अगस्त माह” में आता है। वर्ष 2021 में यह पर्व 22 अगस्त दिन रविवार को मनाया गया। 2022 में 12 अगस्त को मनाया गया। वर्ष 2023 में रक्षा बंधन 31 अगस्त दिन गुरूवार को मनाया जा रहा है। हालांकि कुछ स्थानों पर 30 अगस्त को भी मनाया गया।
2. रक्षाबंधन का इतिहास
रक्षाबंधन का इतिहास बेहद पुराना रहा है प्राचीन धर्म ग्रंथों और ऐतिहासिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। देवासुर संग्राम, वामणावतार, महाभारत, सिकंदर और पोरस, कर्णावती और हुमायूं की कहानियों से रक्षाबंधन के प्राचीन और ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं।
2.1 धार्मिक ग्रंथों में
प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों में रक्षाबंधन से जुड़ी कई कहानियों का उल्लेख मिलता है। जिसका वर्णन यहां पर किया जा रहा है।
● देवा-सुर संग्राम की कहानी
रक्षाबंधन पर्व की शुरुआत की कहानी का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है। फिर भी ‘भविष्य पुराण’ के अनुसार देवता और दानव के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें दानव हावी हो रहे थे। तब देवताओं के राजा “इंद्र” घबराकर देव गुरु ‘बृहस्पति‘ के पास गए। बृहस्पति ने इंद्र की पत्नी को रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के दिया और इसे इंद्र के हाथों में बांधने के लिए कहा। ‘इंद्राणी’ ने ऐसा ही किया, संयोग से यह “श्रावणी पूर्णिमा” का दिन था। लोगों का मानना है कि इंद्र की विजय इस युद्ध में धागे की मंत्र शक्ति के कारण हुई। उसी दिन से श्रावणी पूर्णिमा में धागे बांधने की प्रथा प्रचलन में आयी। इसके बाद युद्ध में जाने से पहले पत्नी पति को तिलक और हाथों में रक्षा कवच बांधने लगी बाद के वर्षों यह ‘भाई-बहन‘ के पर्व के रूप में विकसित हुआ।
● मां लक्ष्मी और राजा बलि की कहानी
भगवत पुराण और विष्णु पुराण के कथाओं के अनुसार जब भगवान “वामन रूप” धरकर राजा बलि के तीनों लोगों पर अधिकार कर लिया था। तब राजा बलि द्वारा वर मांगे जाने पर भगवान विष्णु ‘पाताल‘ स्थित बलि के महल में विराजमान हो गए थे। तब लंबे समय तक बैंकुण्ठ धाम खाली रहने के बाद माता लक्ष्मी पाताल में राजा बलि के निवास स्थल पर पहुंची, और उन्होंने राजा बलि को भाई बनाया तथा हाथों में मां लक्ष्मी ने रक्षा का सूत्र बांधी। तत्पश्चात राजा बलि ने मां लक्ष्मी से मुंह मांगा उपहार मांगने के लिए कहा, इस पर माता लक्ष्मी ने राजा बलि से कहा कि वे भगवान विष्णु द्वारा दिये गये इस वचन से मुक्त कर दे जिसमें “भगवान विष्णु ने बलि के महल में हमेशा रहने का वचन दिया था” दानवीर बलि ने उनकी बातें मान ली और भगवान विष्णु को वचन से मुक्त कर दिया, तब भगवान विष्णु फिर से अपने धाम बैकुंठ जा सके।
● मां संतोषी की जन्म की कहानी
धर्म ग्रंथों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ‘भगवान गणेश’ के दो पुत्र ‘शुभ और लाभ’ हैं। इन दोनों भाइयों को एक बहन की बड़ी कमी महसूस हो रही थी। क्योंकि बहन के बिना ये दोनों भाई रक्षाबंधन नहीं मना पा रहे थे। इन दोनों भाइयों ने पिता गणेश से बहन की मांग की! भगवान गणेश मान गये। गणेश की दो पत्नी थी ‘रिद्धि और सिद्धि’। तत्पश्चात रिद्धि और सिद्धि के दिव्य प्रकाश से “मां संतोषी” का प्रादुर्भाव हुआ।
● कृष्ण और द्रौपदी की कहानी
यह कहानी महाभारत से जुड़ी भगवान कृष्ण और द्रौपदी की है। यह कहानी उस समय की है जब पांडु पुत्र ‘युधिष्ठिर’ “राजसूय यज्ञ” कर रहे थे। युधिष्ठिर अपने राज-दरबार में देश-विदेश से सैकड़ों राजा-महाराजाओं को आमंत्रित किया था। आमंत्रित राजाओं में से एक थे चेदी नरेश ‘शिशुपाल‘ ! शिशुपाल ने भगवान कृष्ण को 100 अपशब्द कहे जिसके बाद कृष्ण ने गुस्से में शिशुपाल पर सुदर्शन चलाकर वध कर दिया। सुदर्शन को तीव्र गति से चलाने के कारण कृष्ण की उंगली कट गई और खून निकलने लगा। खून निकलता देखकर द्रोपदी ने झट से अपनी साड़ी फाड़ कर बांध दिया, जिससे खून का बहना बंद हो गया। तब भगवान कृष्ण ने द्रौपदी को रक्षा का वचन दिया। संयोग से यह श्रावण मास की पूर्णिमा थी। बाद के वर्षों में जब हस्तिनापुर के राजमहल में कौरवों द्वारा द्रोपदी का चीर हरण किया गया। तब कृष्ण ने अदृश्य होकर द्रोपति को वस्त्र आपूर्ति कर उनकी इज्जत की लाज रखी।
2.2 ऐतिहासिक ग्रंथों में
भारतीय इतिहास में कई ऐसी कहानियां है, जिसमें रक्षाबंधन का जिक्र मिलता है। उन्हीं में से कुछ कहानियों को यहां उल्लेख किया जा रहा है।
● सिकंदर और पुरु की कहानी
विश्वविजय का सपना लेकर भारत आने वाला आक्रमणकारी सिकंदर की पत्नी ने पुरु (पोरस) राजा को राखी भेजी और उसने अपने पति सिकंदर पर जानलेवा हमला न करने का वचन लिया। युद्ध भूमि में जब राजा पोरस ने अपनी कलाई पर बंधी राखी देखी तो उसने हारते हुए सिकंदर पर जानलेवा हमला नहीं किया। इस तरह राजा पोरस ने सिकंदर की जान बख्श कर राखी की लाज रखी। यूनानी इतिहासकारों ने राजा पुरू को “राजा पोरस” से संबोधित किया है।
● कर्णावती और हुमायूं की कहानी
मध्यकाल में भारत के हिन्दू धर्म से संबंधित विभिन्न इलाकों में रक्षाबंधन का पर्व प्रचलन में था। रानी कर्णावती चित्तौड़ के राजा की विधवा थी। उस समय गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से अपने राज्य का खतरा देख कर कर्णावती ने मुगल सम्राट हुमायूं को राखी भेजी। तब हुमायूं मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुर शाह के विरोध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्णावती और उसके राज्य की रक्षा की।
● 1905 ई• में बंग-भंग विद्रोह की कहानी
1905 ई• में जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया था। तथा डिवाइड एंड रूल के सिद्धांत पर आगे चलते हुए अंग्रेज भारत में फूट डालकर शासन करना चाहते थे। तब विश्वकवि ‘रविंद्र नाथ टैगोर‘ ने हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने के लिए देशभर में ‘बंग-भंग‘ आंदोलन के जरिये रक्षाबंधन का पर्व मनाने का आह्वान किया था।
रविंद्र नाथ टैगोर और अन्य महान हस्तियों ने नदी में स्नान कर एक दूसरे के हाथ में राखी बांधने तथा जब तक काला कानून जबतक वापस न लिया जाता हो तब तक आंदोलन जारी रखने का संकल्प का आह्वान किया। भारतीय नेताओं के आह्वान पर 16 अक्टूबर को बंगाल के सभी लोग आंदोलन में जुट गए तथा स्नान करके एक दूसरों के हाथों में ‘पीले धागे‘ की राखी बांधी। गरम दल के नेता लाल, बाल, पाल ने इस आंदोलन को पूरे देश में फैलाया। यह आंदोलन छह वर्षों तक चला अन्ततः अंग्रेज झूक गये और 11 दिसंबर 1912 को दिल्ली दरबार में ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने इस आदेश को वापस ले लिया। इस प्रकार राखी के धागे से उत्पन्न एकता ने आंदोलन को सफल बनाया।
3. रक्षाबंधन का महत्व
प्राचीन समय में शुरू हुआ रक्षाबंधन पर्व का आज के समय में बड़ा महत्व है। यह बंधन युद्ध में जाने वाले योद्धाओं के लिए विजय सूचक रहा है। राजा या सैनिक जब भी युद्ध में जाया करते थे। उनकी पत्नियां या माताएं विजय तिलक, आरती और धागों से रक्षा कवच बांधती थी। जिससे योद्धाओं में आत्मविश्वास बढ़ता था और वे शत्रुओं पर विजय पाते थे। समय के साथ रक्षाबंधन भाई-बहन के त्यौहार के रूप में भी परिवर्तित हुआ है। रक्षाबंधन पर्व में भाई-बहन के बीच स्नेह और प्यार विकसित होता है। दूर स्थित बहन भाई को राखी बांधने के लिए घर पहुंचती है इससे समाज में सभी लोगों के प्रति प्यार का भाव भी उत्पन्न होता है।
रक्षाबंधन से प्रेरणा लेकर अब प्रकृति प्रेमियों ने वृक्षों को बचाने के लिए “वृक्षा बंधन” जैसे कार्यक्रम के जरिए पेड़ों की रक्षा और महत्व की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं। इस इस वर्ष भी रक्षाबंधन के शुभ अवसर पर देश के विभिन्न भागों में पेड़ों को बचाने के लिए वृक्षा बंधन का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है।
4. रक्षाबंधन से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
☆ रक्षाबंधन के अवसर पर भारत के बॉर्डर पर बालिकाओं और महिलाओं के द्वारा सैनिकों को राखी बांधी जाती है। ताकि देश की रक्षा में जुटे जवान भी अकेला महसूस ना कर सके।
☆ ओडिशा और पश्चिम बंगाल में लोग रक्षाबंधन के अवसर पर राधा और कृष्ण की मूर्तियों को पालने में रख के झूला झूलाते हैं। इसलिए इस दिन को इन क्षेत्रों में श्रावण पूर्णीमा को “झूलन पूर्णिमा” के नाम से जाना जाता है।
☆ विशेषकर मध्य भारत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में पुत्रवती महिलाओं द्वारा यह पर्व किया जाता है। जिससे महिलाओं द्वारा पत्तों के पात्र में खेत से लाए गए मिट्टी में जौ या गेहूं बोई जाती है। इसे इन क्षेत्रों में
“कजरी पूर्णिमा” के नाम से जाना जाता है।
☆ केरल और महाराष्ट्र में विशेषकर तटीय क्षेत्रों में रहने वाले हिंदू मत्स्य पालक समुदायों द्वारा सावन पूर्णिमा के दिन चावल, फूल और नारियल से सागर की पूजा की जाती है। जिसे “नारली पूर्णिमा” के नाम से भी जाना जाता है।
☆ रक्षाबंधन के अवसर पर देश में प्रकृति संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए वृक्षों की रक्षा बंधन भी किया जा रहा है।
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प्रस्तुतीकरण
www.gyantarang.com
लेखन
महेंद्र प्रसाद दांगी