Holi || होली || होली कब और क्यों मनाई जाती है || होली की क्या है मान्यताएं
होली उत्तर भारत में मनाया जाने वाला हिंदुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा तथा चैत माह की पहली तिथि को मनाया जाता है। विश्व भर में जहां भी हिंदू धर्म मानने वाले लोग बसे हैं वहां यह पर्व बड़े हर्षोल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन लोग पुआ-पकवान, मिठाइयां बनाते हैं, और दुश्मनी भूलकर एक दूसरे को यह पकवान खिलाते हैं। लोग एक दुसरे से गले मिलते हैं, रंग, अबीर, गुलाल लगाते हैं। रंग, अबीर, गुलाल के कारण इस पर्व को “रंगोत्सव” के नाम से भी जाते हैं। बसंत ऋतु में मनाए जाने के कारण इसे “वसंतोत्सव” के नाम से भी जाना जाता है। इस पोस्ट में होली कब और क्यों मनाई जाती है तथा होली की क्या है मान्यताएं देखने जा रहे हैं।
भारतीय इतिहास में होली
होली भारत का प्राचीन पर्व है। इतिहासकारों के अनुसार आर्य के समय से ही होली मनाए जाने का प्रचलन है। होली का वर्णन पौराणिक धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गाह्य सूत्र में इसका वर्णन किया गया है। नारद पुराण और भविष्य पुराण में भी होली का उल्लेख मिलता है।
प्राचीन हस्तलिपि और ग्रंथों में इस पर्व का उल्लेख किया गया है। विंध्य क्षेत्र में स्थित अभिलेख में भी होली का वर्णन मिलता है। प्रसिद्ध मुस्लिम यात्री “अलबरूनी” ने भी अपने ऐतिहासिक वर्णन में होली का उल्लेख किया है। भारत में अनेक हिंदू और मुस्लिम कवियों ने भी अपने-अपने समय में अपनी कविताओं में होली का वर्णन किया है। मुगल काल में ‘अकबर का जोधा बाई’ तथा ‘जहांगीर का नूरजहां’ के साथ होली खेलने का उल्लेख मिलता है।
प्राचीन चित्र, भित्ति चित्र और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र आज ही देखे जा सकते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी में 16वीं शताब्दी में हर्षोल्लास से होली के चित्रण को देखा जा सकता है। 17 वीं शताब्दी में मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा प्रताप को अपने दरबारियों के साथ होली का चित्र देखा जा सकता है।
होली की धार्मिक मान्यताएं
होली के पर्व से संबंधित अनेक कहानियां प्रचलित हैं इनमें से सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध कहानी “भक्त प्रह्लाद” से जुड़ी है। इस कहानी के अनुसार “हिरण्यकशिपु” नामक एक बड़ा बलशाली असुर शासक था। वह बल के अहंकार में अपने आप को भगवान कहता था। और उसने अपने राज्य में प्रजा को अपने नाम के अलावा अन्य को ईश्वर मानने पर प्रतिबंध लगा रखी थी। उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रोध होकर उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को कई तरह की कठोर यातनाएं दी। सांपों के बीहड़ में छोड़ दिया, बिष पान कराया गया, पहाड़ से गिरा दिया गया। लेकिन इन सबसे प्रह्लाद का कोई नुकसान नहीं हुआ। उनका विश्वास ईश्वर के प्रति और बढ़ गया।
हिरण्यकशिपु की बहन “होलिका” को वरदान था कि वह अग्नि में जल नहीं सकती। इस वरदान के आड़ में उन्होंने प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। आग में बैठने के बाद होलिका तो जल गयी, परंतु ईश्वर भक्ति में लीन प्रह्लाद को ज्वाला कुछ ना कर सकी। इसी तिथि को बुराई का प्रतिक होलिका का दहन कर होली पर्व की शुरूआत की जाती है।
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भक्त प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर नाच-गान कर शिव के गणों का वेश धारण करते है, और शिव की बरात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन “राक्षसी पूतना” का वध किया था। इसी खुशी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।
होली से जुड़ी परंपराएं
होली का त्यौहार भारतीय ज्योतिष के अनुसार फाल्गुन माह के पूर्णिमा और चैत माह के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। फाल्गुन पूर्णिमा के दिन बुराई के प्रतीक होलिका का दहन किया जाता है। और दूसरे दिन अर्थात चैत्र माह की प्रथम तिथि को धूलिवंदना अर्थात होली मनाया जाता है। इस तिथि को लोग ईर्ष्या-द्वेष की भावना भूलकर प्रेम-पूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग, अबीर, गुलाल लगाते हैं। लोग होली के दिन घरों में खीर, पूरी, पकवान, मिठाइयां आदि बनाते हैं और लोगों को खिलाते हैं। गांजा, भांग, शराब इस पर्व के विशेष पर पदार्थ हैं। इसे खा पीकर के लोग मस्ती में झूम उठते हैं। बच्चे पिचकारी से एक दूसरे पर रंग फेक कर खेलते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियां रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाच-गान करती है। टोले-मुहलों में गाने बाजे का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।
होलिका दहन
होली से एक दिन पहले रात में बुराई की प्रतीक होलिका का दहन किया जाता है. हिन्दू धर्म में ऐसा माना जाता है कि बुराई का प्रतीक हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका को आग में जलाने से बुराई समाप्त हो जाती है. धार्मिक कहानी के अनुसार हिरण्यकश्यपु अपने विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद को जब किसी भी जतन से मार नहीं सका तब हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका ने सुझाव दिया कि
“भइया मुझे भगवान से ये वरदान प्राप्त है कि आग मुझे जला नहीं सकती. इस लिए मैं पह्लाद को लेकर आग में जाउंगी, पह्लाद आग में जल जाएगा.”
होलिका इस विश्वास के साथ आग में चली गयी, लेकिन कुछ ही देर में आग उसे जलाने लगी वहीं प्रह्लाद को आग कोई नुकसान नहीं पहुंचाई. बुराई का प्रतीक होलिका जल गयी और सच्चाई का प्रतीक प्रह्लाद आग में भी जाकर सुरक्षित रहा. ऐसा माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर होलिका दहन किया जाता है.
एक दुसरी मान्यता के अनुसार होलिका दहन को पुराना संवत (पुराना वर्ष) जलना भी कहते हैं, क्योंकि होलिका दहन के अगले दिन नव वर्ष शुरू होता है. इस लिए एक दिन पहले साल की अंतिम तिथि को संवत अर्थात वर्ष को जला दिया जाता है. ताकि बिते हुए वर्ष की समस्या समाप्त हो जाए.
भारत में होली के विशिष्ट उत्सव
भारत में होली का उत्सव विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। ‘ब्रज‘ की होली विश्व भर में प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्से ब्रज के रूप में जाने जाते हैं। उत्तर प्रदेश में ‘वरसाने‘ की “लठमार होली” भी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं तथा महिलाएं उन्हें लाठियों और कपड़े के बने कोड़ो से मारती है। इसी तरह मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है।
पश्चिम बंगाल में होली चैतन्य महाप्रभु के जन्म दिवस को “डोलजात्रा” के रूप में मनाई जाती है। बिहार में होली को फगुआ के नाम से भी जानते हैं। यहां होली के दिन लोग सुबह में धूल-कीचड़, दोपहर में रंग तथा शाम में अबीर-गुलाल खेलते हैं। इसी तरह देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न तरीके से होली का उत्सव मनाया जाता है।
विश्व के विभिन्न भागों में जहां-जहां भारतीय बसे हैं। वहां होली का पर्व बड़ी श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। नेपाल, ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी आदि देशों में होली का त्यौहार बड़े हर्ष और उल्लास से मनाया जाता है।
होली में पलाश के फूलों का महत्व
होली में पलाश के फूलों का विशेष महत्व रहता है। छोटानागपुर के पठार में “पलाश के फूलों” का खिलना बसंत ऋतु की पहचान होती है। होली बसंत ऋतु का प्रमुख त्योहार है। आधुनिक समय में होली के दौरान रासायनिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। जो काफी खतरनाक भी होता है, वहीं पहले पलाश के फूलों को पानी में खौलाकर रंग बनाने की प्रथा प्रचलन में था। पलाश के फूलों से बने रंग स्वास्थ्य के अनुकूल हुआ करती थी।
भारतीय साहित्य में होली

प्राचीन समय से ही होली का वर्णन भारतीय धर्म ग्रंथों और साहित्य में होता रहा है। श्रीमद् भागवत महापुराण में होली का वर्णन रसों के रूप में किया गया है। हर्षवर्धन की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली तथा कालिदास रचित कुमारसंभवम् एवं मालविकाग्निमित्रम् में होली का वर्णन रंगो उत्सव के रूप में किया गया है। भारवी, माघ ने भी वसंत की चर्चा अपनी रचनाओं में किया है। चंदबरदाई द्वारा रचित “पृथ्वीराज रासो” में होली का वर्णन मिलता है।
विद्यापति, सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर, केसव, बिहारी, धनानंद आदि जैसे कवियों ने वसंत और होली को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफर जैसे मुस्लिम संप्रदाय के कवियों ने भी होली का सुंदर चित्रण अपने रचनाओं में किया है।
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प्रस्तुतीकरण
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संकलन
महेंद्र प्रसाद दांगी
