वन एवं वन्य जीव संसाधन class 10 notes forest and wildlife
Class:- 10th.
Subject:- Geography
Chapter:- 02. Forest and wild life resources
( वन एवं वन्य जीवन संसाधन)
परिचय:–
हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं उस पर हमारे साथ-साथ अनेकों जीव और जंतु भी निवास करते हैं। जैसे सूक्ष्म-जीवाणुओं से लेकर जोंक तक छोटे-छोटे पौधों से लेकर बड़े वटवृक्ष तक, चूहे, गिलहरी से लेकर हाथी और हिप्पोपोटामस तक छोटे-छोटे मछलियों से लेकर बड़े-बड़े ब्लू व्हेल तक सभी पृथ्वी पर एक साथ रहते हैं। यह पूरा आवासीय स्थल जिस पर हम रहते हैं। वह अत्यधिक जैव- विविधताओं से भरा है।
किसी प्राकृतिक प्रदेश में पायी जाने वाली जंगली तथा पालतू जीव-जंतुओं एवं पादपों की प्रजातियों की बहुलता को जैव विविधता कहते हैं।
जैव विविधता क्या है इन कुछ उदाहरणों से समझते हैं:-
एक पेड़ है जिसकी जाति आम है। और आम के कई प्रजातियां पाई जाती है जैसे दशहरी, अल्फासों, मालदा,लंगड़ा,चौसा इत्यादि। उसी प्रकार मछली में देखिए मछली एक प्रकार का जाति है या जीव है। इसमें कितने प्रजातियां है झींगा, कतला, रेहु, सार्क, व्हेल इत्यादि। इसी प्रकार हरेक पेड़-पौधे तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियां पाई जाती है। जिस क्षेत्र में जितनी ही अधिक जीव तथा जीवों के प्रजातियां पाई जाएंगी, वहां जैव विविधता उतना ही बेहतर स्थिति में होगा।
जैव विविधता मानव जीवन के लिए क्यों आवश्यक है:-
जैव विविधता हरेक जीवों के जीवन के लिए आवश्यक है। मानव और दूसरे जीवधारी आपस में जुड़े हुए हैं। भोजन और अन्य जरूरी चीजें एक दूसरे से पूरी होती है।
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पारिस्थितिक या पारितंत्र (Ecosystem):-
यह वह तंत्र है जिसमें समस्त जीवधारी आपस में एक दूसरे के साथ तथा पर्यावरण के उन भौतिक एवं रासायनिक कारकों के साथ परस्पर क्रिया करते हैं, जिसमें वे निवास करते हैं यह सभी ऊर्जा एवं पदार्थ के स्थानांतरण द्वारा संबंध होते हैं एक छोटा तालाब या कुआं से लेकर पूरा पृथ्वी पारितंत्र हो सकता है।
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पर्यावरण:-
किसी भी सजीव प्राणी के चारों और पाए जाने वाले लोग, स्थान, वस्तुऐ एवं प्रकृति को पर्यावरण कहते हैं।
भारत में वनस्पतिजात और प्राणीजात
भारत जैव विविधता की दृष्टिकोण से समृद्ध देशों में से एक है। यहां विश्व की सभी जैव उपजातियों का लगभग 8% अर्थात लगभग 16 लाख पाई जाती है। भारत में लगभग 81 हजार वन्य जीवन उपजातियां लगभग 47 हजार वनस्पतियों की प्रजातियां पाई जाती हैं। इसमें 15 हजार उपजातियां भारतीय मूल की है।
प्रिय बच्चों क्या आपने कभी सोचा है कि इन संसाधनों का आपके दैनिक जीवन में क्या महत्व रखता है। विविध प्रकार के ये वनस्पतिजात और प्राणीजात हमारे हर रोज के जीवन में इस तरह से घुल-मिल गए हैं कि इन बहुमूल्य संसाधनों की हम कद्र करना छोड़ दिए हैं। इसी मान्यता के कारण यह संसाधन आज लुप्त होने लगे हैं। कुछ तो लुप्त हो चुके हैं और कुछ लुप्त होने के कगार पर है।
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क्या आप जानते हैं कि:-
“भारत में बड़े स्तनधारियों की 79 जातियां, पक्षियों की 44 जातियां , सरीसृपों की 15 जातियां और जलचरों की 3 जातियां लुप्त होने के कगार पर है। साथ ही लगभग 15 सौ वनस्पति की जातियां लुप्त होने के ओर बढ़ रहा है।”
प्रकृति संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय संघ (International Union for the Conservation of Nature) के अनुसार भारत में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं की निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
1• सामान्य जातियां:- इस श्रेणी के अंतर्गत वे जातियां शामिल की गई है जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती है। जैसे:- पालतू पशु ( गाय, बैल, भैंस, कुत्ते, घरेलू बिल्ली, चुहा, घोड़ा) साल, चीड़ और रोडेड्स इत्यादि।
2• संकटग्रस्त जातियां:– इस वर्ग में उन जाति समूह को रखा जाता है। जिसे लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है। यदि वे जारी रही तो इन जातियों का जीवत रहना कठिन हो जाएगा। काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गैंडा, शेर-पूछ वाला बंदर, संगई (मणिपुरी हिरण) इत्यादि संकटग्रस्त जाति वर्ग में रखे गए हैं।
3• सुभेद्य जातियां:- ये वैसे जातियां हैं जिनकी संख्या लगातार घट रही है। यदि इन पर विपरीत प्रभाव डालने वाली परिस्थितियां नहीं बदली तो ये जातियां एक दिन संकटग्रस्त की श्रेणी में आ जाएगी। जैसे- नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा नदी का डॉल्फिन, इत्यादि।
4• दुर्लभ जातियां:- भारत में इस वर्ग के जातियों की संख्या बहुत ही कम है यदि इन पर विपरीत प्रभाव नहीं रुका तो ये जातियां संकटग्रस्त की श्रेणी में आ जाएंगी। हिमालय के भूरे भालू, एशियाई भैंसा, रेगिस्तानी लोमड़ी, हॉर्नबिल दुर्लभ जातियों की श्रेणी में है।
5• स्थानिक जातियां:- ये वे जातियां हैं जो प्राकृतिक या भौगोलिक सीमा के अलग किसी खास क्षेत्रों में पाए जाते हैं। जैसे-अंडमानी टील(Teal), निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सूअर और अरुणाचल के मिथुन इत्यादि।
6• लुप्त जातियां:- इस श्रेणी में वैसे जातियों को रखा गया है जो इसके मूल रहने के स्थान पर पता लगाने के बाद नहीं पाए गए। अर्थात इनका अस्तित्व अब समाप्त हो चुका है। इन्हें लुप्त जाति की श्रेणी में रखा गया है। जैसे- एशियाई चीता, गुलाबी सिर वाली बत्तख इत्यादि।
एशियाई चीता : कहां चला गया?
चीता धरती पर रहने वाला दुनिया का सबसे तेज दौड़ने वाला स्तनधारी जीव है. यह 112 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकता है. चीता बिल्ली परिवार का एक अजूबा और अनोखा सदस्य है. लोगों को आमतौर पर यह भ्रम होता है कि चीता एक प्रकार का तेंदुआ है. जबकि चीते और तेंदुए में बहुत अंतर होता है. चीते की पहचान उसकी आंख के कोने से मुंह तक नाक के दोनों ओर फैली आंसुओं के लकीर नुमा निशान से होती है. बीसवीं शताब्दी से पहले तक चीता अफ्रीका और एशिया के विभिन्न भागों में फैले हुए थे. परंतु इनके आवासीय स्थल सिकुड़ने एवं शिकार की कम उपलब्धता के कारण ये लगभग लुप्त हो चुके हैं. भारत में तो चीता बहुत पहले 1952 में ही लुप्त घोषित कर दिया गया है.
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बच्चों अभी आपने देखा कि अंतरराष्ट्रीय संस्था IUCN ने भारतीय वन एवं वन्य जीवन संसाधन का वर्गीकरण किया। आपने देखा सेखर ग्रस्त , दुर्लभ, लुप्त आदि जातियों को! आइए जानते हैं : इनके लुप्त दुलर्भ या सेकर ग्रस्त होने के क्या कारण है ?
प्रश्न :- वे प्रतिकूल कारक कौन से हैं जिनसे वनस्पतिजात और प्राणिजात का ऐसा भयानक क्षय हुआ है ?
बच्चों , यदि आप अपने आस-पास नजर दौड़ाते हैं तो आपको मालूम चलेगा कि अपने आस-पास की बहुत सारी चीजें इन्हीं वन एवं वन्य जीवन संसाधन से ही प्राप्त होकर बनी है। इस प्रकार देखते है कि मानविय किया कलापों ने ही वनस्पतिजात और प्राणिजात के क्षय का कारण है।
आइए जानते हैं ये कारण कौन-कौन से हैं:-
(1) आवास बनाने हेतु भूमि की बढ़ती मांग के कारण हमने जंगलों को उजाड़ कर उसे कृषि भूमि में बदल दिया है। इससे वन क्षेत्र कम हो गया है।
(2) सड़क, रेल तथा बड़ी विकास योजनाओं के कारण हमने वनों को क्षति पहुंचाई है। इस तरह के मानवीय क्रियाकलापों ने प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
(3) खनिजों को निकालने के लिए हमने जंगलों को बर्बाद किया है।
(4) कल-कारखानों को लगाने हेतु वनों को साफ किया गया है।
(5) वाणिज्य वानिकी के जरिए हमने कुछ ही पेड़ पौधों का रोपण किया है जिससे जैव विविधता खतरे में पड़ गया है।
(6) जंगलों में लगने वाली आग अर्थात दावानल के कारण जंगल के जंगल नष्ट हो रहे है।
(7) जंगली जानवरों का शिकार, पर्यावरणीय प्रदूषण, विषाक्तकरण जैसे कारकों से जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पडा है। जिससे कई वनस्पतिजात एवं प्राणीजात लुप्त हो चुके हैं।
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● वाणिज्य वानिकी:-
इमारती वृक्षों का रोपण वाणिज्य वानिकी कहलाता है। इसमें वृक्षों को लगाने का उद्देश्य वाणिज्य अर्थात् पेड़ों को काटकर बेचना होता है। इसलिए इस प्रकार के रोपण में केवल इमारती या मूल्यवान वृक्षों का ही रोपण किया जाता है। इस प्रकार के वृक्षों के रूपन से धन की प्राप्ति होती है परंतु जैव विविधता के लिए इस प्रकार का रोपण उचित नहीं है। क्योंकि इस प्रकार के रोपण प्रक्रिया में कुछ खास या एकल वृक्षों का ही रोपण किया जाता है।
● दावानल
दावानल वन के उस प्रकार के आग की घटना को कहते हैं जब किसी वन क्षेत्र के एक भाग या पूरे भाग में आग लगने से पेड़-पौधे, जीव-जंतु सभी जलकर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब उस क्षेत्र में वनस्पति और मिट्टी सूख जाती है और आद्रता बहुत कम हो जाती है। आग लगने का कारण प्राकृतिक जैसे बिजली गिरने या पेड़ों को टकराने से हो सकती है या फिर मानवीय गतिविधि के कारण भी आग लग सकती है।
● विषाक्तकरण
उद्योगों से निकलने वाले कचरे तथा कृषि क्षेत्र में प्रयोग होने वाले कीटनाशकों एवं रासायनिक उर्वरकों से जल एवं भूमि प्रदूषित हुई है। जिसका प्रतिकूल असर कई प्रकार के जीवों पर पड़ा है।
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आइए जानते हैं वनस्पतिजात और प्राणीजात के बचाव के क्या उपाय हैं:-
(1) वृक्षों को लगाना तथा वृक्षों के काटने पर प्रतिबंध।
(2) शिकार पर पूर्णतः प्रतिबंध तथा सख्त कानून लाना।
(3) घरेलू इंधन में सामाजिक वानिकी एवं कृषि वानिकी का उपयोग करना।
(4) लकड़ी के फर्नीचर की जगह अन्य वस्तुओं के फर्नीचर जैसे प्लास्टिक, लोहे आदि का प्रयोग करना।
(5) लोगों के बीच जागरूकता अभियान, सेमिनार एवं वन संरक्षण से संबंधित सम्मेलन आदि करना।
उपरोक्त उपायों से वन संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा।
इसे भी जानें:-
● सामाजिक वानिकी
आवासीय स्थल एवं क्रियाकलाप स्थल के आसपास खाली पड़े भू-भाग पर फलदार एवं इमारती वृक्षों को लगाना सामाजिक वानिकी कहा जाता है। इससे इंधन के लिए लकड़ी, जानवरों के लिए चारा और छोटे-मोटे लकड़ी के उपयोग हेतु इस्तेमाल में लाने के उद्देश्य से किया जाता है। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने 1976 में इसे बढ़ावा दिया था।
● कृषि वानिकी (Agroforestry)
फसलों के साथ-साथ पेड़ों एवं झाड़ियों को लगाकर दोनों के लाभ प्राप्त करने को कृषि वानिकी कहा जाता है। इस विधि में खेतों के आसपास पड़े खाली भूमि, मेढ़ों या फसलों के बीच में वृक्षों या झाड़ियों का रोपण किया जाता है। इस विधि के द्वारा फसलों के उत्पादन के साथ-साथ लकड़ी एवं झाड़ियों का उपयोग पशुओं के लिए चारा, इंधन के लिए लकड़ी तथा घरेलू फर्नीचर आदि जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है।
भारत में वन और वन्य जीवन का संरक्षण
प्राकृतिक आवास में रहने वाले जीव-जंतुओं को वन्य जीवन के रूप में जाना जाता है। वनों और वन्य जीवन में तीव्र गति से हो रहे ह्रास के कारण इनका संरक्षण आवश्यक हो गया है।
पेड़-पौधों और वन्य जीवन के संरक्षण के प्रमुख उद्देश्य:-
• पेड़-पौधों एवं वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास की सुरक्षा।
• सुरक्षित क्षेत्रों में जीवों का उचित रख-रखाव।
• पेड़-पौधों एवं वन्यजीवों के लिए जैव मंडल रिजर्व के स्थापना करना।
• विश्व के जियो में अनुवांशिकी पदार्थ की वर्तमान श्रृंखला को बनाए रखना।
• अधिनियमों एवं कानून लाकर वन्य जीवों एवं पेड़-पौधों की रक्षा करना।
भारत में पेड़-पौधों तथा वन्य जीवन की सुरक्षा हेतु उठाए गए कदम:-
आजादी के बाद भारत में तेजी से वन्य जीवों के संरक्षण की बात प्रबुद्धजनों में उठाने लगी थी। देश की सामाजिक संस्थाओं और बुद्धिजीवियों ने 1960 और 70 के दशक में राष्ट्रीय वन्य जीवन सुरक्षा कार्यक्रम की पुरजोर वकालत की। इसे देखते हुए भारतीय संसद में 1972 को वन्य जीवन रक्षण( सुरक्षा)अधिनियम-1972 को पारित किया गया।
वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम 1972 के मुख्य प्रावधान
• यह अधिनियम जंगली जानवरों, पक्षियों और पौधों को संरक्षण प्रदान करता है।
• इस अधिनियम के तहत दुर्लभ तथा संकटग्रस्त प्रजातियों का शिकार करना प्रतिबंध है।
• वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए समिति का गठन करना है।
• संपूर्ण भारत में संरक्षित जातियों की सूची भी प्रकाशित की गई है।
• पशु-पक्षियों, जीवों तथा पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचाने पर 3 से 10 साल तक की सजा का भी प्रावधान किया गया।
• इस अधिनियम में जुर्माना 10 हजार से 25 लाख हो सकता है।
• कानूनी प्रावधान को 6 अनुसूचियों में वर्णित किया गया है।
वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम-1972 को संसद में पारित होने के बाद देशभर में अभ्यारण और राष्ट्रीय उद्यानों के माध्यम से कई भागों में संकटग्रस्त जीव के संरक्षण के लिए कई परियोजनाओं की शुरुआत की।
• बाघों को बचाने के लिए “बाघ परियोजना”।
• सिंह (शेर) को बचाने के लिए “गिर सिंह परियोजना”।
• कस्तूरी मृग की सुरक्षा के लिए “कस्तूरी मृग परियोजना”।
• मणिपुर थामिल (हिरण) की रक्षा के लिए “मणिपुर थामिन परियोजना”।
• कश्मीर के हंगूल (हिरण) की सुरक्षा के लिए हंगुल परियोजना
• घड़ीयालों और मगरमच्छों को बचाने के लिए “मगर प्रजनन परियोजना”।
• हाथियों को बचाने के लिए “हाथी परियोजना”। आदि की शुरुआत की गई।
बाघ परियोजना (Project Tiger)
बाघ वन्य जीवन का एक अद्भुत जीव है। जैव विविधता को बनाए रखने में बाघ की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में बाघों की अनुमानित संख्या 55,000 थी। जो 1973 में आधिकारिक गणना के अनुसार घटकर 1827 रह गया।
बाघों की संख्या के कम होने के प्रमुख कारण:-
• बाघों की हड्डियों से औषधियों एवं खालों के लिए बाघों को मारकर उनका व्यापार करना।
• सघन वनों में कमी के कारण बाघों के आवासीय स्थलों का सिंकुडना।
• बाघों के भोजन जैसे हिरण, खरगोश, जंगली भैंसा आदि की संख्या में लगातार कमी होना।
• वन क्षेत्रों और टाइगर रिजर्व क्षेत्रों के समीप आवास स्थल होने से मानव और बाघ के बीच परस्पर संघर्ष से बाघ की संख्या में कमी आई है।
उपरोक्त कारण भारत में बाघों की घटती संख्या के लिए जिम्मेवार हैं। भारत और नेपाल विश्व के लगभग दो-तिहाई बाघों का निवास स्थल है। इस कारण तस्करों की निगाह यहां के बाघ क्षेत्रों पर रहती है। एशियाई देशों में विशेषकर चीन में बाघ के अंगों एवं उनकी हड्डियों का प्रयोग औषधि के लिए किया जाता है।
बाघ परियोजना “Project tiger” विश्व की बेहतरीन वन्य जीव परियोजनाओं में से एक हैं। इस परियोजना की शुरुआत 1 अप्रैल 1973 को उत्तराखंड स्थित जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान से किया गया। प्रारंभ में 9 बाघ परियोजना की शुरुआत की गई, जो वर्तमान में बढ़कर 50 हो गयी है। वर्ष 2006 में भारत में बाघों की संख्या 1411 थी जो 2010 में 1706 और 2014 में 2226 हो गई। 29 जुलाई 2019 को अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर प्रधानमंत्री ने बाघ रिपोर्ट 2018 प्रस्तुत किया। जिसके तहत भारत में बाघों की संख्या बढ़कर 2967 हो गई। भारत में विश्व का आधे से अधिक बाघ पाये जाते हैं।
? बाघ से संबंधित रोचक तथ्य और भारत के सभी 50 बाघ परियोजना को जानने के लिए यहां पर क्लिक कीजिए
वन और वन्य जीवन संसाधनों के प्रकार और वितरण
वन और वन्य जीवन संसाधनों का संरक्षण करने के लिए उनका प्रबंधन, नियंत्रण और विनियमन कठिनाइयों के बावजूद करना आवश्यक है। भारत में वन एवं वन्य जीव संसाधन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के अधीन है। जो वन विभागों एवं अन्य विभागों के जरिए प्रबंधन और नियंत्रण में है। प्रशासनिक उद्देश्य के आधार पर भारत के वन एवं वन्य जीवन संसाधनों को निम्न वर्ग में बांटा जा सकता है।
1• आरक्षित वन (सुरक्षित वन) (Reserved Forest):- इसके अंतर्गत स्थानीय वन क्षेत्र को सम्मिलित किया गया है। जिनका रख-रखाव इमारती लकड़ी, अन्य वन उत्पादों को प्राप्त करने और उनके बचाव के लिए किया जाता है।
• इनमें पशुओं को चराने की अनुमति प्राप्त नहीं होती है।
• देश के आधे से अधिक वन क्षेत्र लगभग 53% भाग आरक्षित वन के अंतर्गत शामिल है।
• इस प्रकार के वन क्षेत्र को सबसे अधिक मूल्यवान माना जाता है।
2• संरक्षित वन (रक्षित वन)(Protected Forest):- इसके अंतर्गत वैसे वन क्षेत्र आते हैं जिनका नियंत्रण सरकार के अधीन तो रहता है, परंतु कुछ शर्तों के साथ वन उत्पाद ग्रहण करने का अधिकार आम जनों को होता है।
• कुल वन क्षेत्र का लगभग 29% भाग इसी प्रकार के वनों से घिरा है।
• इन वनों को और अधिक नष्ट होने से बचाने के लिए इसे संरक्षण की आवश्यकता है।
3• अवर्गीकृत वन (Unclassified Forest):- उपरोक्त दोनों प्रकार के वन को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के वन और बंजर भूमि क्षेत्र जो सरकार व्यक्तियों या समुदायों के अधीन होता है। अवर्गीकृत वन कहा जाता है।
• देश में कुल वन क्षेत्र का लगभग 18% भू-भाग पर इसी प्रकार का वन पाया जाता है।
• इस प्रकार के वन क्षेत्र में वृक्षों को काटने, मवेशियों को चराने तथा वन उत्पाद ग्रहण करने का प्रतिबंध लगभग नहीं होता है।
आरक्षित वन और रक्षित वन ऐसे स्थानीय वन क्षेत्र है, जिनका रख-रखाव इमारती (मूल्यवान) लकड़ियो तथा अन्य वन पदार्थों और उनके बचाव के लिए किया जाता है।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
• मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 75% वन क्षेत्र स्थानीय वन के अंतर्गत है।
• इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी स्थानीय वन के अंतर्गत बड़ा हिस्सा शामिल है।
• जबकि बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा और राजस्थान में कुल वनों में रक्षित वनों का बड़ा अनुपात है।
• वहीं पूर्वोत्तर राज्यों तथा गुजरात में अधिकतर वन अवर्गीकृत है, जो स्थानीय समुदायों के प्रबंधन में है।
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समुदाय और वन संरक्षण
वन और वन्य जीव संसाधन हमारे जीवन के लिए बहुत ही अमूल्य है। इसी महत्व को देखते हुए भारतीयों ने आजादी के पूर्व से ही वनों और वन्य जीवन संसाधनों के संरक्षण हेतु कई अभियान चलाए हैं। भारत के कई भागों में आमजनों ने सरकारी विभागों से जुड़कर वन संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण कार्य किया।
• राजस्थान के सरिस्का बाघ अभ्यारण में वहां के गांव के लोगों ने खनन कार्य बंद करवाने के लिए संघर्षरत है।
• राजस्थान के अलवर जिले में 5 गांव के लोगों ने 20,000 हेक्टेयर वन भूमि को भैरोंदेव डाकव सेंचुरी घोषित कर दी है। जिससे इस क्षेत्र में शिकार पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा दिया गया है।
• उत्तराखंड का प्रसिद्ध चिपको आंदोलन ने वृक्षों की कटाई रोकने में सहायक सिद्ध हुआ है।
• उत्तराखंड के टिहरी क्षेत्रों में “बीज बचाओ आंदोलन” और “नवदालय” जैसे अभियानों ने लोगों को बता दिया है, कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के बिना भी विभिन्न प्रकार के फसलों का व्यवसायिक उत्पादन किया जा सकता है।
• 1988 में संयुक्त वन प्रबंधन का प्रस्ताव पारित किया गया
• राजस्थान के विश्नोई समुदाय के लोगों द्वारा काले हिरण, नील गाय, चिंकारा, मोर आदि का संरक्षण किया जा रहा है।
• भारत के कई समुदायों ने रीति-रिवाज, पूजा पाठ में वन एवं वन्य जीव के संरक्षण के प्रचलन में हैं जैसे- आदिवासी लोगों द्वारा करमा पूजा, सहरुल पूजा, हिंदुओं द्वारा शादी विवाह में आम, इमली के पेड़ों की पूजा, घरों में तुलसी की पूजा आदि प्रचलित परंपरायें वन एवं वन्य जीवन संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
? class10 Geography chapter 1 Quiz Question
इसे भी जानें:-
●चिपको आंदोलन :-
चिपको आंदोलन पर्यावरण संरक्षण का एक महत्वपूर्ण आंदोलन है। यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश (अब उतराखण्ड) के चमोली जिले में सन् 1973 में 26 मार्च को प्रारंभ हुआ था। भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेतृत्व में यह आंदोलन शुरू हुआ जिसे सुंदरलाल बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत ने आगे बढ़ाया।
उत्तराखंड के रेणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, जिसे बचाने के लिए गौरा देवी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर पेड़ों से चिपक कर पेड़ों की कटाई को असफल कर दिया था। सबसे इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन के रूप में जाना जाने लगा।
● बीज बचाओ आंदोलन:-
यह आंदोलन परंपरागत अनाजों एवं उनके बीजों को संरक्षित रखने का एक अभियान है। इसकी शुरुआत चिपको आंदोलन से जुड़े विजय जड़धारी ने की थी। उन्होंने खेती की अनूठी परंपरा पद्धति से जुड़ी हुई बारहनाजा नामक पुस्तक की भी रचना की थी। बारहनाजा एक प्रकार का फसल चक्र पद्धति है।
● नवदालय:-
नवदालय भारत की एक गैर सरकारी संस्था है। जो जैव विविधता के संरक्षण, जैविक कृषि, कृषि अधिकार तथा बीज बचाने के लिए कार्य कर रही है। इसकी शुरुआत 1984 में हुई थी। वंदना शिवा इसके संस्थापकों में से एक हैं जो भारत के एक प्रसिद्ध और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।
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धन्यवाद!
जय हिंद
Hello sir,
Sir jese aapne geography 10th class chepter 2 ko itne ache se yaha diya hua hai kya class 9th or 10th ki all social science books ke all lessons mil skte hai ??????